एक साम्राज्यवादविरोधी सर्वभारतीय एकता, इन लौकिक हितों की सबसे बुनियादी शर्त थी। इसीलिए, गांधी, आजाद और दूसरे अनेकानेक राष्ट्रवादी बौद्घिक-सांस्कृतिक-धार्मिक नेताओं ने, खुद धार्मिक परंपराओं, विश्वासों को इस प्रकार पुनर्परिभाषित व व्याख्यायित और यहां तक कि पुनर्सृजित किया था, जो उन्हें इस सर्वभारतीय एकता के अनुरूप ढाले। यह उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्घ्र में उठे सुधार आंदोलनों का अगला कदम था। अचरज नहीं कि गांधी ने जहां एक ओर, हिंदू धर्म की ऐसी कल्पना पर जोर दिया, जिसमें अन्य धर्मों का आदर एक प्रमुख मूल्य हो।
राहुल गांधी के हिंदुत्व और हिंदू धर्म के अंतर और वास्तव में उनके एक-दूसरे के विरोधी होने को रेखांकित करने से भारत को बहुसंख्यकवादी निरंकुशता के रास्ते पर धकेले जाने का मुकाबला करने वाली ताकतों को क्या और कैसी मदद मिलेगी, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन, आरएसएस प्रमुख भागवत तथा भाजपा के शीर्ष नेताओं में योगी आदित्यनाथ से लगाकर नीचे तक, संघ परिवार के हजारों मुंहों से आई तिलमिलाहट भरी प्रतिक्रियाओं से साफ है कि श्री गांधी का तीर एकदम निशाने पर लगा है। इतना ही नहीं, कांग्रेस के शीर्ष नेता द्वारा हिंदू धर्म और हिंदुत्व के उक्त अंतर को सार्वजनिक बहस के बीच लाए जाने के बाद से और खासतौर पर साल के आखिर में हिंदू धर्म के नाम पर हुई कई घटनाओं ने, इस अंतर की सच्चाई को साबित करने का ही काम किया है।
इनमें एक ओर तो स्वयंभू हिंदू धर्म रक्षकों द्वारा गुड़गांव में शुक्रवार दर शुक्रवार, अलग-अलग जगहों पर नमाज में बाधा डाले जाने से लेकर, क्रिसमस के आयोजनों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि से लेकर कर्नाटक तक में खलल डाले जाने की घटनाएं शामिल हैं। और दूसरी ओर है, हरिद्वार से लेकर रायपुर तक, धर्म संसद और जाहिर है कि हिंदू धर्म संसद के नाम पर हुए खुल्लमखुल्ला, पर-धर्म विरोधी जमावड़ों का आयोजन। हिंदू धर्म की रक्षा करने के नाम पर हुई इन करतूतों के चरित्र के संबंध में इतना याद दिलाना ही काफी होगा कि अपनी सारी हिचकिचाहट तथा अनिच्छा के बावजूद, वर्तमान डबल इंजन शासन को भी, इन सभी मामलों को देश के कानून के अंतर्गत अपराध मानकर, आपराधिक तफ्तीश तो शुरू करनी ही पड़ी है।
असली मुद्दा यही है कि आज हम हिंदू धर्म या हिंदू धार्मिक आस्था के बरखिलाफ, हिंदू धर्म की दुहाई के राजनीतिक इस्तेमाल के ही विस्फोट से दो-चार हो रहे हैं। हिंदू धार्मिक परंपरा के विपरीत, यह परिघटना उतनी ही नयी और आधुनिक है, जितनी की राष्ट्र-राज्य की संकल्पना। यह संयोग ही नहीं है कि भारतीय महाद्वीप में, राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को धार्मिक पहचान से जोड़ने के दो सबसे बड़े सिद्घांतकार—सावरकर और जिन्ना—दोनों ही निजी तौर पर धार्मिक आस्थाओं से बहुत दूर और नितांत लौकिकतावादी थे। शायद इसलिए भी, वे अपने-अपने पैदाइश के धर्म के साथ, एक पूरी तरह से निर्मम उपयोगितावादी रिश्ता बनाने में और धर्म की दुहाई को अपने राजनीतिक लक्ष्यों के लिए युद्घ की तलवार बनाने में समर्थ हुए। इसके अर्थ को, मिसाल के तौर पर गांधी, नेहरू तथा मौलाना आजाद के धर्म के साथ रिश्ते के सामने रखकर, देखा जा सकता है।
जहां नेहरू, एक निरीश्वरवादी थे और धर्म को राजनीति से दूर ही रखने के पक्षधर थे, गांधी और आजाद, अपने-अपने धर्म में आस्था ही नहीं रखते थे, साम्राज्यवादी शासन के संदर्भ में, अपने धर्मावलंबियों के लौकिक हितों के साथ अपनी आस्था को जोड़ते और वास्तव में उनके लौकिक हितों के तकाजों से अनुशासित भी करते थे। एक साम्राज्यवादविरोधी सर्वभारतीय एकता, इन लौकिक हितों की सबसे बुनियादी शर्त थी। इसीलिए, गांधी, आजाद और दूसरे अनेकानेक राष्ट्रवादी बौद्घिक-सांस्कृतिक-धार्मिक नेताओं ने, खुद धार्मिक परंपराओं, विश्वासों को इस प्रकार पुनर्परिभाषित व व्याख्यायित और यहां तक कि पुनर्सृजित किया था, जो उन्हें इस सर्वभारतीय एकता के अनुरूप ढाले। यह उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्घ्र में उठे सुधार आंदोलनों का अगला कदम था। अचरज नहीं कि गांधी ने जहां एक ओर, हिंदू धर्म की ऐसी कल्पना पर जोर दिया, जिसमें अन्य धर्मों का आदर एक प्रमुख मूल्य हो, तो दूसरी हिंदू धर्म की ऐसी कल्पना का तकाजा किया, जिसमें छुआछूत ''पाप'' हो। कहने की जरूरत नहीं है कि सावरकर हों या जिन्ना, धार्मिक पहचान के सिर्फ इस्तेमाल में दिलचस्पी रखने वालों की इस तरह के सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं थी बल्कि वे तो इन्हें अपने धार्मिक समुदायों को बांटने वाला मानकर, दबाने की ही कोशिश करते थे। विशेष रूप से हिंदू पहचान के लिए इसका अर्थ, जातिवादी सवर्ण पहचान होना भी था।
भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान धार्मिक परंपराओं का ऐसा अनुकूलन व सुधार, जनता को लौकिक हितों के अनुकूल होने के साथ ही, भारतीय पंरपरा के अनुकूल होने के चलते भी काफी असरदार साबित हुआ था। भारतीय परंपरा, अपने मूल में बहुलतावादी परंपरा रही है। एक ओर अगर दुनिया के सारे धर्म, अपनी स्थापना की चंद सदियों में ही भारत तक पहुंच चुके थे, तो दूसरी ओर विशेष रूप से मुस्लिम पंरपरा के महत्वपूर्ण रूप से स्थापित होने के साथ, ''हिंदू'' और हिंदू धर्म की संज्ञाओं के प्रचलन में आने के समानांतर भी वैष्णव, शैव, शाक्त आदि, आदि धर्मों की धारणाएं और द्वैत-अद्वैत आधारित संप्रदायों की पहचानें भी चलन में थीं। इसके साथ ही लोक धर्मों के रूप में भक्ति, सूफी आदि मिली-जुली पंरपराएं भी फल-फूल रही थीं। यहां तक कि धार्मिक परंपराओं का अच्छा-खासा ऐसा हिस्सा भी था, जिसे हिंदू या मुस्लिम की श्रेणियों में बांटा ही नहीं जा सकता था और अंगरेजों ने जब भारत में जनगणना की शुरूआत की थी, आबादी का अच्छा-खासा हिस्सा, हिंदू, मुसलमान या ईसाई जैसी प्रमुख धार्मिक पहचानों के दायरे से बाहर ही था। यह दूसरी बात है कि जनसंख्या की गिनती की इस प्रक्रिया से निकले, सांप्रदायिक होड़ के राजनीतिक तकाजों ने, कुछ ही समय मेें, इन समूहों में से अधिकांश को, प्रमुख धर्मों में से किसी एक के खाने में धकेलने का ही काम किया।
भारतीय उपमहाद्वीप के इस यथार्थ को देखते हुए, रत्तीभर अचरज की बात नहीं है कि यहां कभी भी और कोई भी उल्लेखनीय राज्य, धर्म-आधारित नहीं रहा। अशोक के प्रसिद्घ धर्मादेशों से लेकर, अकबर द्वारा प्रवर्तित दीन-ए-इलाही तक, भारत में अपने ही तरीके से धर्मनिरपेक्ष राज्य की ही परंपरा रहने के साक्ष्य हैं। इस परंपरा में शासक, अपने धर्म से भिन्न प्रजा की धार्मिक परंपराओं के प्रति वैरभाव रखना तो दूर, आम तौर पर उनका आदर किया करता रहा है और वास्तव में प्रजा की धार्मिक परंपराओं को, जहां तक हो सके खुद भी अपनाया करता था। इसी वास्तविक भारतीय पंरपरा को, ब्रिटिश राज के संदर्भ में विकसित हुई सुधार आंदोलनों तथा अंतत: राष्ट्रीय आंदोलन की परंपरा ने आगे बढ़ाया और स्वतंत्र भारत के लिए एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष संविधान के रूप में इसे मूर्त रूप दिया, जो न सिर्फ जाति-धर्म-भाषा आदि के विभाजनों से ऊपर उठकर, सभी के लिए समान अधिकारों की गारंटी करता है बल्कि सभी कमजोर तबकों तथा तमाम अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान भी करता है, ताकि बराबरी को वास्तविक बनाया जा सके।
इसी समूची विकासधारा के विरोधी स्वर के रूप में, ब्रिटिश सामराजी इतिहास दृष्टिï ने, भारत में हिंदू और मुस्लिम, दो विरोधी राष्ट्रों की मौजूदगी के विचार के बीज बोए और सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने की दावेदार कांग्रेस के नेतृत्ववाली राष्ट्रीय धारा के विपरीत, अकेले-अकेले मुस्लिम और हिंदू संप्रदायों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले संगठनों को बढ़ावा देने के जरिए, सामराजी हुकूमत ने संप्रदाय आधारित परवर्जी राष्ट्र की इन कल्पनाओं को पाला-पोसा। इसी क्रम में सावरकर ने हिंदुत्व के नाम से, हिंदू धार्मिक परंपराओं से नितांत भिन्न, एकांगी हिंदू पहचान पर आधारित, परवर्जी राष्ट्र की अपनी संकल्पना पेश की, जिसे गोलवलकर ने हिटलर के नाजी मॉडल से जोड़कर और नरसंहारकारी रूप से सांप्रदायिक बना दिया। दूसरी ओर, मुस्लिम लीग के नेतृत्व में पाकिस्तान के रूप में एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग उठाई गई। ब्रिटिश हुकूमत की मदद से, मुस्लिम लीग तो अलग पाकिस्तान बनवाने में कामयाब हो गई, लेकिन उसके हिंदू समकक्ष, हिंदू महासभा और आरएसएस की, शेष भारत पर नाजी मॉडल का अपना हिंदू राष्ट्र उर्फ हिंदुत्व थोपने की कोशिश को, भारतीय जनता ने, हिंदुओं के प्रचंड बहुमत के बावजूद, जोरदार तरीके से ठुकरा दिया। गांधी की हत्या की दुस्साहसिक करतूत के बाद तो, उनके लिए अस्तित्व बचाने का ही संकट पैदा हो गया था। उधर, 1971 में पाकिस्तान से टूटकर कर, बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र बनने ने, धर्म पर आधारित राष्ट्र की अवधारणा को नकारते हुए, एक प्रकार से शेष भारत के अपनी परंपरा के अनुरूप, समावेशी तथा धर्मनिरपेक्ष बने रहने के निर्णय, के भारतीय जनता के हित में और इसलिए सही होने की ही पुष्टिï की थी। यह दूसरी बात है कि अब हरिद्वार की अधर्म संसद की नरसंहार की पुकारों में, उसी नाजी मॉडल के हिंदुत्व की प्रतिध्वनि सुनाई दे रही है, जिसे स्वतंत्र भारत ही नहीं, समूचा भारतीय उप-महाद्वीप भी कई बार ठुकरा चुका है।
दुर्भाग्य है कि इसके बावजूद, सबसे बढ़कर मुस्लिम-द्वेष पर टिकी सांप्रदायिक हिंदू राष्ट्र या हिंदुत्व की परियोजना, पिछले करीब पांच दशकों में भारत में ज्यादा से ज्यादा ताकतवर होती गई है और आज उसके हाथ देश की सत्ता तक पहुंच चुके हैं। इस संदर्भ में लोगों को न सिर्फ बार-बार याद दिलाने की जरूरत है कि यह सांप्रदायिक परियोजना समूची भारतीय जनता के हितों के खिलाफ है बल्कि बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को भी यह बार-बार याद दिलाने की जरूरत है कि इस जनविरोधी धंधेबाजी की, हिंदुओं के हितों की दुहाई सरासर झूठी है और यह एक झूठी गढ़ंत है, जिसका वास्तविक हिंदू परंपराओं से, उसके इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है और जो वास्तव में जातिवादी सोपानक्रम से हिंदू परंपराओं को मुक्त करने के संघर्ष को ही नकारने के जरिए, हिंदू धार्मिक परंपराओं पर सवर्ण प्रभुत्व को ही पुख्ता करती है। इस अर्थ में राहुल गांधी का इस पर जोर देना उपयोगी भी है और जरूरी भी कि हिंदुत्व के पीछे, हिंदू धर्म की एक गढ़ी हुई पश्चिमी कल्पना है, जिसका वास्तविक हिंदू परंपराओं से कुछ लेना-देना नहीं है बल्कि वह तो उनको नकारती ही है। लेकिन, इसके साथ ही इतने ही बलपूर्वक यह कहा जाना भी जरूरी है कि बहुसंख्यक हिंदुओं समेत, सभी भारतीयों के वास्तविक हितों की सुरक्षा, उसी धर्मनिरपेक्ष भारत की रक्षा करने में है, जो हिंदू परंपराओं समेत, वास्तविक भारतीय परंपराओं से निकला है और जिसे राष्ट्रीय आंदोलन ने एक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया है। इस बहस को असली हिंदू बनाम नकली हिंदू की बहस तक ही ले जाकर छोड़ देना न सिर्फ अनुत्पादक साबित होगा बल्कि परवर्जी तरीके से इसे हिंदुओं तक सीमित कर के अंतिम विश्लेषण में, भारतीय राष्ट्र और हिंदू को समानार्थी बनाने के हिंदुत्व के प्रोजेक्ट को ही वैधता तथा ताकत देगा। दुर्भाग्य से राहुल गांधी समेत, अनेक कांग्रेस नेताओं की ''मैं सच्चा हिंदू'' की मुद्रा, अक्सर इसी गड्ढïे में गिरती नजर आती है, जिससे बचा जाना चाहिए।
राजेन्द्र शर्मा